छात्रों के अभिभावक सायलेंट किलर !

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सागर शहर की एक निजी स्कूल ने अनुशासन के नाम पर हद पार कर दी है. बच्चों को भूखे प्यासे दो घण्टे तक मैदान में खड़ा कर दिया गया. क्या स्कूली बच्चों को इस तरह अनुशासन में समेटा जाएगा ?

निजी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावक क्या अपने बच्चों के लिए सायलेंट किलर की तरह साबित हो रहे हैं ??? एक तरफ नित नई ऊँचाईयों को छूती आधुनिक सभ्यता के झरोंखे से झांकती एक्सपेंसिव एजुकेशन को समाज स्वीकारता जा रहा है । एक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण बनता जा रहा है उन शिक्षा प्रेमियों का जो ये मानकर चलने लगे हैं कि परिवार के बच्चों को एक्सक्लूसिव एजुकेशन देने के लिए एक्सपेंसिव एजुकेशन से समझौता करना ही पड़ेगा ।

लेकिन एक्सपेंसिव (कीमती) एजुकेशन के दायरे ने बच्चों के नैतिक अधिकार का पतन कर दिया है, मैं ये मानकर चलता हूँ । कुछ बड़े निजी स्कूलों में बच्चों का तिलक लगाकर आना वर्जित है, ये सबसे शर्मनाक और घटिया सोच का दुर्विचार स्कूल कलैण्डर में बहुत पहले से पनप गया था । बच्चे इन स्कूलों में चोट लगने पर रो नहीं सकते, स्वास्थ खराब होने पर मां बाप को याद नहीं कर सकते । याने सुबह 7 बजे से लेकर दोपहर 2 बजे तक ऐसी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे हर तरह से एक्सपेंसिव एजुकेशन की हथकड़ियों में बंधे नजर आते हैं । स्कूल की छुट्टी होने के एक घण्टे पहले इन स्कूलों के बाहर ऑडी से लेकर फार्च्यूनर, वर्ना से लेकर ब्रेजा तक नामी गिरामी कारों के स्टैण्डबाॅय मोड में आने के बाद कार से बाहर निकलते बिजनेस हाऊसेज के लोग दूर से स्कूल की तरफ लाईन लगाकर बच्चों को ताकते नजर आते हैं । स्कूल के गेट से दूर एक सीमित दायरे में खड़े इन पालकों तक इनके बच्चे आकर घर के लिए रवाना हो जाते हैं । इन बच्चों में घर जाने का उत्साह नहीं होता क्यूँकि स्कूल में मिले अभिभावकों के सामने चुप रहने के ऑर्डर और अभिभावकों को पल पल निहारने की दोहरी चारित्रिक शैली के बीच बच्चे शाम तक खुद से जूझते नजर आते हैं । फिर शाम से होमवर्क और सुबह फिर एक्सपेंसिव हथकड़ी में बांधे जाने के विचार बच्चों को हिलाकर रख देते हैं । कई मामले ऐसे आये जब स्कूल के भीतर दर्द में तड़पते , उल्टियां करते बच्चों की खबरें बाहर तक नहीं आईं और अगर आईं तो वो भी दो या तीन दिन बाद सायलेंट मोड में । जरा सी बात पर बच्चों के अधिकारों को लेकर पड़ोसी से तू-तू मैं-मैं करने वाले अभिभावक स्कूल में बच्चे के साथ हुए घटनाक्रम पर सायलेंट मोड में नजर आते हैं । बच्चा भी हैरान रहता है कि मेरे माता पिता मुझे लेने स्कूल नहीं आए सिर्फ छुट्टी होने का इंतजार करते रहे । क्यूँ समय पर डाॅक्टर के पास नहीं जा पाये ? पेंडेमिक पीरियड में ये कैसे डिसाईड हो जाता है कि बच्चे को कोरोना या डेंगू स्कूल में हुआ या घर में, ये तय कौन कर पाएगा ?? क्यूँकि अभिभावकों के सामने तो स्कूल का प्रोटोकाॅल है कि स्कूल को साफ स्वच्छ और बेदाग होने की क्लीन चिट देते रहना है, वर्ना उनके बच्चे की टीसी फौरन थमा दी जाएगी । मीडिया के अलावा पड़ोस में भी स्कूल को क्रिटिसाईज करना, मतलब बच्चे के भविष्य से खिलबाड़ करना बन जाता है, आए हैं ऐसे मामले भी जब मीडिया में स्कूल का नाम उकेरने के बाद उस अभिभावक के बच्चे को स्कूल प्रबंधन ने स्कूल में ही एजुकेशन लाईन से अलग थलग रख दिया । अब अभिभावकों का स्कूल प्रबंधन के प्रति जेंटल प्राॅमिस इतना बढ़ गया है कि पैरेन्ट्स टीचर मीट में बच्चे के मां बाप ज्यादा सवाल जवाब नहीं कर पाते । अब ये परंपरा पूरी तरह से पुख्ता हो गई है कि मजाल है इन बड़े स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे के अभिभावक स्कूल प्रबंधन से जवाब तलब कर लें या स्कूल के फीस स्ट्रक्चर से लेकर आए दिन घटित होने वाले कारनामें मीडिया के सामने रख दें । राज्य शासन ने भी इस तरह की कोई सेन्ट्रल स्क्वाट गठित नहीं की जो कभी भी इन बड़ी निजी स्कूलों की सरप्राईज चैकिंग कर सकें । जब किसी स्कूल से जुड़ी कोई खबर सोशल मीडिया पर बूस्ट-अप होती है तो स्कूल प्रबंधन से लेकर बच्चे के माता पिता सायलेंट मोड में आ जाते हैं और खबर को प्रकाशित करने के लिए मामले के तार सिलसिलेवार नहीं जुड़ पाते, फिर खबर खत्म हो जाती है लेकिन मुख्य किरदार उस छात्र या छात्रा के अभिभावक का होना चाहिए था लेकिन सायलेंट मोड पर उन अभिभावकों की आईडियोलाॅजी हो जाती है । ये एक तरह का शांत नाशक ही है जिसकी उत्पत्ति बड़े स्तर पर हो चुकी है । अब ऐसे समय में इन बड़ी स्कूलों के प्रबंधन से बच्चों के सेहत की गारंटी लेना आवश्यक हो गया है लेकिन उल्टे अभिभावकों से ही अण्डर टेकिंग ली जाने लगी है । याने अभिभावक बच्चों को स्कूल भेजें तो स्वयं की गारण्टी पर स्कूल की कोई गारण्टी नहीं ।

एक्सपेंसिव एजुकेशन के बीच एक तरह से अभिभावकों की भूमिका सायलेण्ट किलर के रूप में ही नजर आ रही है । यूनीफाॅर्म,सिलेबस फीस की एक्सपेंसिव जद्दोजहद के बीच बच्चों की सेहत को लेकर अभिभावक मौन हैं ।

तनवीर अहमद, संपादक