अकादमिक साधना के महामहर्षि

प्रकृति हमेशा अपने साथ अनेक संदेश और संकेत लेकर अस्तित्व बनाती है. कहीं हरे भरे पेड़ पौधे तो कहीं कल-कल करती जलधारायें, कहीं लहलहाते खेत तो कहीं ऊँची-ऊँची चट्टानें, ये सब अपनी ही मस्ती में सबको समेट लेते हैं. ऐसा ही एक मनोरम सुरम्य रमणीक स्थान है सागर के पथरिया की पहाड़ियाँ- जहाँ लक्ष्मी सरस्वती शक्ति का अद्भुत संगम बसता है. तभी तो शिक्षा-ऋषि डॉ हरीसिंह गौर ने इसे अकादमिक साधना की तपोभूमि के लिए चुना.

कुछ बातें समय के गर्भ में आकार लेती हैं और कुछ समय को साकार कर जाती हैं, बस दूरदृष्टि होनी चाहिए. डॉक्टर हरीसिंह गौर की दूरदृष्टि कुछ ऐसी कि उन्होंने सन् 1944 में ही देख लिया था कि एक भारत श्रेष्ठ भारत के निर्माण के लिये एक उत्कृष्ट शैक्षणिक संस्थान की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है और इसके लिए उन्होंने पथरिया की पहाड़ियों को चुना. अनेक चुनौतियों पर विजय पाते हुए 18 जुलाई 1946 को सागर विश्वविद्यालय की स्थापना को साकार रूप देते हुए डॉक्टर गौर ने आत्मनिर्भर भारत की दिशा में एक और यज्ञ-आहुति दी.

डॉक्टर हरीसिंह गौर केवल नाम नहीं वरन पूरा अध्याय है एक नवीन युग का, एक महाकाव्य है रचनाधर्मिता का और स्वयं में संपूर्ण सौरमंडल है एक आकाशगंगा का. डॉक्टर गौर जिन्होंने सागर के बंगला स्कूल से किलकारियाँ बिखेरी, लंदन में परचम फहराया, दिल्ली नागपुर रायपुर होते हुए फिर से सागर में ज्ञान-विज्ञान के मोती पिरोए. ऐसे हमारे गौर बब्बा ने अंग्रेजी हुकूमत को भी हिलाकर रख दिया था अपने ज्ञान, स्वाभिमान और देशप्रेम की भावना की ताकत से.

सन 1842 के बुंदेला विद्रोह में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले वीर स्वतंत्रता सेनानी श्री मानसिंह के पोते हरीसिंह गौर ने भी मातृभूमि की सेवा के लिए नये आयाम स्थापित किये. पिता श्री तखत सिंह गौर और माता श्रीमती लाड़ली बाई के पुत्र के रूप में 26 नवम्बर 1870 को जन्म लेने वाले बुंदेला राजपूत श्री हरीसिंह ने बचपन से ही अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया था. उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उनके शिक्षक उनको तिलगा यानि चिंगारी कहा करते थे. कालांतर में यही चिंगारी अपनी मेहनत और प्रतिभा के दम पर एक दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह प्रतिष्ठित है. शिक्षा और साहित्य में प्रतियोगिताओं में अव्वल आना हो अथवा विधि के क्षेत्र में अपराजेय बने रहना, राजनैतिक नेतृत्व की बात हो या संविधान निर्माण में अहम भूमिका, कानूनी बारीकियों पर टीका हो अथवा समाज सुधार के नये आयाम- इन सभी में डॉक्टर गौर की भूमिका ही उनको युगप्रवर्तक बनाती है. आज डॉक्टर गौर का होना एक साथ ब्रम्हा विष्णु महेश होने जैसा कहा जा सकता है. सृजन का आधार, व्यक्तित्वों का सम्पोषण और अन्याय का संहार- यही सब तो प्रकट रूप में स्थापित किया है डॉक्टर गौर ने. ‘द स्पिरिट ऑफ बुद्धिज्म’ लिखकर कुछ ऐसा चिन्तन दिया कि जापान में उनको भगवान बुद्ध के बाद दूसरे स्थान पर सम्मान मिलने लगा. भारतीय संविधान के निर्माण में उनके योगदान को स्मरण करते हुए कहा जा सकता है कि प्रत्येक वर्ष 26 नवम्बर को संविधान दिवस मनाया जाना मात्र एक संयोग नहीं है वरन उनके प्रति सम्मान का संयोग भी है. डॉ गौर ने सिखा दिया, दिखा दिया कि एक व्यक्ति अपनी प्रतिभा, समर्पण और सद्भावना से सब कुछ साकार कर सकता है. स्वयं अर्जित की संपत्ति से दान राशि द्वारा सागर विश्वविद्यालय की स्थापना एक अनूठा और अप्रतिम उदाहरण है. डॉक्टर गौर को पढ़ना और गुनना हमें एक नयी ऊर्जा और रोमांच देता है. शायद भविष्य में लोगों को विश्वास यही होगा कि डॉक्टर हरीसिंह गौर एक मनुष्य नहीं एक अवतार थे तभी इतना कुछ कर सके. उनका स्मरण ही भक्ति है और हमारे लिये शक्ति का स्रोत भी. डॉक्टर गौर के जीवन दर्शन के अलौकिक प्रकाश पुंज से हम भी कुछ नया सृजन कर सकें, यह आराधना हम कर ही सकते हैं.

जय गौर, जय सागर, जय भारत -प्रो दिवाकर सिंह राजपूत